मित्रो देश में लगातार हो रही बलात्कार की वारदाते और महिलाओ के साथ हो रहा दुर्व्यवहार एक गंभीर चिंता का विषय है । कुछ वर्ष पूर्व तक जाति, क्षेत्र, धन या अन्य किसी कारण से स्वयं को ऊंचा मानने वाले कुंठित मानसिकता के लोग ऐसा करते थे; पर अब तो विद्यालय के छात्र अपनी सहपाठियों के साथ दुष्कर्म कर रहे हैं। इतना ही नहीं, तो वे मोबाइल फोन से इनकी वीडियो बनाकर यू ट्यूब पर प्रसारित कर रहे हैं। मानो दुष्कर्म न हुआ, एक नया मनोरंजन हो गया।
दुष्कर्म के अपराधियों के दंड पर आजकल खूब चर्चा हो रही है। अनेक वकील, राजनेता व समाजशास्त्री अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। अधिकांश लोग फांसी या नपुंसकता के पक्ष में हैं। मृत्युदंड के विरोधियों के अनुसार इससे न्याय मिलने में बहुत देरी होगी। क्योंकि इसके लिए बहुत पक्के साक्ष्यों की आवश्यकता होती है, जो प्रायः ऐसे मामलों में नहीं मिल पाते, अतः दोषी छूट जाएंगे। इतना ही नहीं, तो अपराधी प्रायः दुष्कर्म के बाद पीडि़ता की हत्या कर देंगे, जिससे वह अपनी बात बता ही न सके; लेकिन इस पर तो सब सहमत हैं कि दंड कठोर और शीघ्र हो। अर्थात न्याय होने के साथ होता हुआ दिखाई भी दे।
मित्रो इन प्रतिक्रियाओं का स्वागत करते हुए हमें अन्तर्मुखी होकर इस पर भी विचार करना होगा कि ऐसी घटनाएं क्यों हो रही हैं तथा इन्हें कैसे रोका या कम किया जा सकता है ?
इन घटनाओं का सबसे बड़ा कारण तो दूषित मानसिकता ही है। इसे चाहे कुछ भी नाम दें; पर इससे एक पक्ष अपना प्रभुत्व दूसरे पर स्थापित करना चाहता है। वह दूसरे पक्ष को बताना चाहता है कि मेरी हैसियत सदा तुमसे ऊपर ही है। यद्यपि ऐसी घटनाएं सदा से ही होती रही हैं; पर पिछले कुछ समय से इनकी संख्या तेजी से बढ़ी है।
भारत देश में किसी समय ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ कहकर नारी को सदा पुरुष से अधिक मान-सम्मान दिया जाता था। गली-मोहल्ले के झगड़े में कई तरह की गाली लोग एक-दूसरे को देते हैं; पर मां-बहिन तक बात पहुंचते ही मारपीट हो जाती है। लेकिन अब पश्चिम के प्रभाव के कारण नारी-पुरुष समानता का भ्रामक दौर चल पड़ा है। अब नारी मां, बहिन या पूज्या नहीं, पुरुष की तरह पैसा कमाने वाली एक वस्तु हो गयी है।
राष्ट्र सेविका समिति की वरिष्ठ कार्यकर्ता प्रमिला ताई मेढ़े ने एक प्रसंग बताया। एक बस अड्डे पर चाय वाले ने एक महिला से पूछा कि माताजी आप क्या लेंगी ? इस पर वह महिला उससे लड़ने लगी कि क्या मैं इतनी बूढ़ी हूं, जो तुम मुझे माताजी कह रहे हो ?
महिला के साथ एक बच्चा भी था। बात बढ़ते देख प्रमिला ताई ने पूछा कि तुम इस बच्चे की क्या हो ? महिला ने उत्तर दिया - मां। प्रमिला ताई ने कहा, ‘‘इसका अर्थ है कि तुम मां तो हो ही। ऐसे में यदि इस चाय वाले ने तुम्हें मां कह दिया, तो क्या हुआ ? पुरुष महिला को मां की तरह देखे, तो यह सम्मान है या अपमान ?’’ इस पर वह महिला चुप होकर बस में बैठ गयी।
अर्थात किसी समय अपनी पत्नी को छोड़कर बाकी सबको मां और बहिन माना जाता था; पर अब मामला उल्टा हो गया है। विचार करें कि क्या इस मानसिकता का भी दुष्कर्म से कुछ सम्बन्ध है ?
एक दूसरे पहलू से देखें तो केवल दुष्कर्म ही क्यों, कई आपराधिक घटनाओं का कारण घर-परिवार में संवाद का अभाव है। इन दिनों भागदौड़ भरे जीवन में सब लोग साथ बैठकर खाना खा सकें, ऐसा कम ही होता है। शहरीकरण और बेरोजगारी ने इस समस्या को और अधिक बढ़ाया है। यद्यपि फेसबुक और ट्विटर के कारण दुनिया भर से संवाद होने लगा है; लेकिन परिवार और वहां से मिलने वाले संस्कार कहीं छूटते जा रहे हैं।
ऐसे में मन बहलाने का साधन फिल्म और दूरदर्शन ही रह गया है। इन पर आने वाले कार्यक्रमों का स्तर कितना गिरा है, यह किसी से छिपा नहीं है। ए और यू श्रेणी की फिल्मों का भेद अब समाप्त हो गया है। नंगापन फिल्म और दूरदर्शन के बाद कम्प्यूटर और मोबाइल फोन में आ गया है। और फिर इसके बाद शराब। इन सबके मिलन से अपराध नहीं तो और क्या होगा ?
संवाद केवल परिवार ही नहीं, तो समाज में भी आवश्यक है। परिवार में सामूहिक भोजन के दौरान यह संवाद होता है। इसी प्रकार मंदिर और विद्यालय आदि में होने वाले कार्यक्रम सामाजिक संवाद को बढ़ाते हैं। इस दृष्टि से कुछ प्रयोग किये जा सकते हैं।
हिन्दू परिवारों में कन्या पूजन, रक्षाबंधन तथा भैया दूज पर्व मनाये जाते हैं। इन्हें घर पर मनाने के बाद यदि सामूहिक रूप से विद्यालय तथा सार्वजनिक स्थानों पर भी मनाएं, तो इससे वातावरण बदल सकता है। कन्या पूजन में मोहल्ले का हर युवक, मोहल्ले की हर कन्या के पैर छूकर उसकी पूजा करे। ऐसे ही रक्षाबंधन एवं भैया दूज में हर कन्या मोहल्ले के हर लड़के को राखी बांधकर टीका करे। जब होली का पर्व विद्यालयों में मनाया जा सकता है, तो रक्षाबंधन और भैया दूज क्यों नहीं मनाये जा सकते ?
इन कार्यक्रमों से से पुरुष वर्ग, विशेषतः युवाओं में नारी समाज के लिए आदर का भाव जाग्रत होगा। विद्यालय या अन्य किसी काम से बाहर जाने वाली लड़की अपने मोहल्ले, बिरादरी या गांव के युवक को देखकर डरने की बजाय स्वयं को सुरक्षित अनुभव करेगी। उस पर यदि कोई संकट आया, तो वह युवक अपनी बहिन के लिए प्राण देने में भी संकोच नहीं करेगा।
जहां तक कानून की बात है, तो वह महत्वपूर्ण है; पर केवल उससे काम नहीं होगा। कानून तो दहेज और कन्या भू्रण हत्या के विरोध में भी हैं, फिर भी ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं। वस्तुतः कठोर कानून और शीघ्र न्याय के साथ ही समाज का वातावरण भी बदलना चाहिए। इसमें घर, परिवार और विद्यालयों के साथ ही सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण है।
वन्दे मातरम !!
संघे शक्ति कलयुगे !!
भारत माता की जय !!
जय जय माँ भारती !!
दुष्कर्म के अपराधियों के दंड पर आजकल खूब चर्चा हो रही है। अनेक वकील, राजनेता व समाजशास्त्री अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। अधिकांश लोग फांसी या नपुंसकता के पक्ष में हैं। मृत्युदंड के विरोधियों के अनुसार इससे न्याय मिलने में बहुत देरी होगी। क्योंकि इसके लिए बहुत पक्के साक्ष्यों की आवश्यकता होती है, जो प्रायः ऐसे मामलों में नहीं मिल पाते, अतः दोषी छूट जाएंगे। इतना ही नहीं, तो अपराधी प्रायः दुष्कर्म के बाद पीडि़ता की हत्या कर देंगे, जिससे वह अपनी बात बता ही न सके; लेकिन इस पर तो सब सहमत हैं कि दंड कठोर और शीघ्र हो। अर्थात न्याय होने के साथ होता हुआ दिखाई भी दे।
मित्रो इन प्रतिक्रियाओं का स्वागत करते हुए हमें अन्तर्मुखी होकर इस पर भी विचार करना होगा कि ऐसी घटनाएं क्यों हो रही हैं तथा इन्हें कैसे रोका या कम किया जा सकता है ?
इन घटनाओं का सबसे बड़ा कारण तो दूषित मानसिकता ही है। इसे चाहे कुछ भी नाम दें; पर इससे एक पक्ष अपना प्रभुत्व दूसरे पर स्थापित करना चाहता है। वह दूसरे पक्ष को बताना चाहता है कि मेरी हैसियत सदा तुमसे ऊपर ही है। यद्यपि ऐसी घटनाएं सदा से ही होती रही हैं; पर पिछले कुछ समय से इनकी संख्या तेजी से बढ़ी है।
भारत देश में किसी समय ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ कहकर नारी को सदा पुरुष से अधिक मान-सम्मान दिया जाता था। गली-मोहल्ले के झगड़े में कई तरह की गाली लोग एक-दूसरे को देते हैं; पर मां-बहिन तक बात पहुंचते ही मारपीट हो जाती है। लेकिन अब पश्चिम के प्रभाव के कारण नारी-पुरुष समानता का भ्रामक दौर चल पड़ा है। अब नारी मां, बहिन या पूज्या नहीं, पुरुष की तरह पैसा कमाने वाली एक वस्तु हो गयी है।
राष्ट्र सेविका समिति की वरिष्ठ कार्यकर्ता प्रमिला ताई मेढ़े ने एक प्रसंग बताया। एक बस अड्डे पर चाय वाले ने एक महिला से पूछा कि माताजी आप क्या लेंगी ? इस पर वह महिला उससे लड़ने लगी कि क्या मैं इतनी बूढ़ी हूं, जो तुम मुझे माताजी कह रहे हो ?
महिला के साथ एक बच्चा भी था। बात बढ़ते देख प्रमिला ताई ने पूछा कि तुम इस बच्चे की क्या हो ? महिला ने उत्तर दिया - मां। प्रमिला ताई ने कहा, ‘‘इसका अर्थ है कि तुम मां तो हो ही। ऐसे में यदि इस चाय वाले ने तुम्हें मां कह दिया, तो क्या हुआ ? पुरुष महिला को मां की तरह देखे, तो यह सम्मान है या अपमान ?’’ इस पर वह महिला चुप होकर बस में बैठ गयी।
अर्थात किसी समय अपनी पत्नी को छोड़कर बाकी सबको मां और बहिन माना जाता था; पर अब मामला उल्टा हो गया है। विचार करें कि क्या इस मानसिकता का भी दुष्कर्म से कुछ सम्बन्ध है ?
एक दूसरे पहलू से देखें तो केवल दुष्कर्म ही क्यों, कई आपराधिक घटनाओं का कारण घर-परिवार में संवाद का अभाव है। इन दिनों भागदौड़ भरे जीवन में सब लोग साथ बैठकर खाना खा सकें, ऐसा कम ही होता है। शहरीकरण और बेरोजगारी ने इस समस्या को और अधिक बढ़ाया है। यद्यपि फेसबुक और ट्विटर के कारण दुनिया भर से संवाद होने लगा है; लेकिन परिवार और वहां से मिलने वाले संस्कार कहीं छूटते जा रहे हैं।
ऐसे में मन बहलाने का साधन फिल्म और दूरदर्शन ही रह गया है। इन पर आने वाले कार्यक्रमों का स्तर कितना गिरा है, यह किसी से छिपा नहीं है। ए और यू श्रेणी की फिल्मों का भेद अब समाप्त हो गया है। नंगापन फिल्म और दूरदर्शन के बाद कम्प्यूटर और मोबाइल फोन में आ गया है। और फिर इसके बाद शराब। इन सबके मिलन से अपराध नहीं तो और क्या होगा ?
संवाद केवल परिवार ही नहीं, तो समाज में भी आवश्यक है। परिवार में सामूहिक भोजन के दौरान यह संवाद होता है। इसी प्रकार मंदिर और विद्यालय आदि में होने वाले कार्यक्रम सामाजिक संवाद को बढ़ाते हैं। इस दृष्टि से कुछ प्रयोग किये जा सकते हैं।
हिन्दू परिवारों में कन्या पूजन, रक्षाबंधन तथा भैया दूज पर्व मनाये जाते हैं। इन्हें घर पर मनाने के बाद यदि सामूहिक रूप से विद्यालय तथा सार्वजनिक स्थानों पर भी मनाएं, तो इससे वातावरण बदल सकता है। कन्या पूजन में मोहल्ले का हर युवक, मोहल्ले की हर कन्या के पैर छूकर उसकी पूजा करे। ऐसे ही रक्षाबंधन एवं भैया दूज में हर कन्या मोहल्ले के हर लड़के को राखी बांधकर टीका करे। जब होली का पर्व विद्यालयों में मनाया जा सकता है, तो रक्षाबंधन और भैया दूज क्यों नहीं मनाये जा सकते ?
इन कार्यक्रमों से से पुरुष वर्ग, विशेषतः युवाओं में नारी समाज के लिए आदर का भाव जाग्रत होगा। विद्यालय या अन्य किसी काम से बाहर जाने वाली लड़की अपने मोहल्ले, बिरादरी या गांव के युवक को देखकर डरने की बजाय स्वयं को सुरक्षित अनुभव करेगी। उस पर यदि कोई संकट आया, तो वह युवक अपनी बहिन के लिए प्राण देने में भी संकोच नहीं करेगा।
जहां तक कानून की बात है, तो वह महत्वपूर्ण है; पर केवल उससे काम नहीं होगा। कानून तो दहेज और कन्या भू्रण हत्या के विरोध में भी हैं, फिर भी ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं। वस्तुतः कठोर कानून और शीघ्र न्याय के साथ ही समाज का वातावरण भी बदलना चाहिए। इसमें घर, परिवार और विद्यालयों के साथ ही सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण है।
वन्दे मातरम !!
संघे शक्ति कलयुगे !!
भारत माता की जय !!
जय जय माँ भारती !!